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आरक्षण, मुआवज़ा और लोकतन्त्र

मेरी बात
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आरक्षण, मुआवज़ा और लोकतन्त्र

प्रत्येक गणतन्त्र दिवस पर भारत के संविधान और लोकतन्त्र का बहुत बढ-चढ कर
बखान किया जाता है | भारतवर्ष को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र बताया जाता है |
सोचता हूँ कि ये सबसा बड़ा लोकतन्त्र क्या सबसे बढ़िया भी है ? यदि नहीं तो इतने
लम्बे समय बाद भी इसे बढ़िया बनाने का प्रयास क्यों नहीं किया गया ? संविधान में
जितने संसोधन भी आज तक हुए क्या वो वोट-बैंक की राजनीति या अन्य किसी
स्वार्थ-सिद्धि के लिए नहीं किये गए ?

अभी एक जाति विशेष को आरक्षण का लाभ दिया गया है | यदि यह जाति आरक्षण का
पात्र है तो इतने वर्ष क्यों लग गए उनकी पात्रता पहचानने में ? क्यों उन्हें अब तक
वंचित रखा गया | सच तो यह है कि एक विशेष समय पर यह आरक्षण घोषित किया गया क्योंकि
यही वह समय था कि जब इस घोषणा का सर्वाधिक राजनैतिक लाभ मिल सकता था | केन्द्रीय
सरकार ने यह घोषणा तक की जब कि उसने देखा कि राज्य सरकार अन्धाधुंध मुआवज़ा लुटाकर
एक दूसरे वर्ग में अपना वोट बैंक बनाने में लगी है | केन्द्र सरकार ने बिल्कुल मौका
नहीं गँवाया और तुरन्त मौके को भुना लिया |

सरकारों के यही आचरण देश के लोकतन्त्र पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं | अगर देश के
करदाताओं के धन को वोट-बैंक के लिए उपयोग करने की इजाज़त देश का संविधान दे रहा है तो
फिर ये कैसा लोकतन्त्र ? क्या राज्य के मुख्यमन्त्री राज्य की जनता से अनुमति लेते
हैं मुआवजा देने की या विधान सभा में विपक्ष समेत सभी जनप्रतिनिधियों से
विचार-विमर्श करके आम सहमति बनाते हैं ? जब शासक के फैसलों में अधिकांश प्रजा की
लेशमात्र भी सहमति नहीं तो फिर क्यों कहा जाता है कि अपने देश में प्रजातन्त्र है ?

मुआवज़े से लाभन्वित लोगों की दृष्टि अब सरकारी भूमि पर गडी है | कोई आश्चर्य
नहीं होगा जब समस्त जनता के हित के लिए काम आ सकने वाली ये भूमि सरकार द्वारा अपने
वोट-बैंक को बाँट दी जायेगी |

निर्धन, परिश्रमी, प्रतिभावान, केवल इसलिए नौकरी से वंचित रखा जाता है  क्योंकि वो आरक्षित जाति का नहीं होता और
सम्पन्न, गैर-परिश्रमी और प्रतिभाहीन को महत्वपूर्ण पदों की बागडोर केवल इसलिए सौंप
दी जाती है कि वह आरक्षित जाति से सम्बन्ध रखता है |

गाँव में ऐसे व्यक्ति भी देखे जा सकते
जो पूरी-पूरी उम्र मेहनत करते हैं लेकिन गाँव के ही अन्दर सौ गज़ का छोटा सा भूखण्ड
नहीं खरीद पाते खेती की बीघा दो बीघा ज़मीन तो बहुत दूर की बात | वे लोग भी बहुत
देखने को मिल जायेंगे जो केवल उतने ही दिन काम काम करते हैं जितने दिनों की कमाई
से उनका और उनके परिवार का पेट भर सके | मकान के लिए भूखण्ड और मकान बनाने के लिए
सरकारी मदद और कुछ बीघा सरकारी ज़मीन उन्हें आसानी से मिल जाती है | दोनों तरह के
लोगों में केवल जातिगत आरक्षण का अंतर है | पहले समूह का व्यक्ति चाहे कितना भी
गरीब हो और दूसरे समूह का व्यक्ति चाहे मिले हुयी सरकारी भूमि को बेच भी दे ,
दूसरी भूमि मिलने की आस में, इससे कोई फर्ख नहीं पड़ता |

समस्या क्या थी ?, समस्या किसने उत्पन्न की ? समस्या का निराकरण कैसे हो ?
पीड़ित को न्याय त्वरित न्याय दिलाया जाए , इन सब बातों को कोई नहीं देखता बस सब लग
जाते हैं देश, और प्रजा की सम्पत्ति को लुटाने में | कभी-कभी तो लगता है कि सरकार
और राजनैतिक दल जैसे प्रतीक्षा में रहतें हों ऐसे अवसरों | कुछ लोगों के घर उजड़ते
हैं और इन्हें आनन्द मिलता है कि चलो वोट-बैंक को समृद्ध बनाने का अवसर मिला | अब
मंत्री-गणों की अपनी सम्पत्ति से तो कुछ जाता नहीं | कभी ऐसा नहीं सुना कि किसी
मन्त्री ने अपने घर से किसी  को मुआवज़े के
पैसे दिए हों या फिर अपने स्वामित्व की विशाल भूमि से आरक्षित जाति को पट्टे काटकर
दिए हो ? नहीं ! सब कुछ प्रजा के पैसे और सम्पति से दिया जाता है क्योंकि यही भारत
का प्रजातन्त्र है |

सच तो ये है कि आरक्षण और मुआवजा देश के वे दो गम्भीर रोग हैं जो इस देश के
लोकतन्त्र को कभी होश में नहीं आने देंगें |

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