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प्राथमिक शिक्षक संघ :
एक समय था जब शिक्षण का पेशा मजबूरी में अपनाया जाता था . जब कोई और काम न मिलता तो पढ़े लिखे बेरोजगार शिक्षक बन जाते. सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों की दशा अच्छी न थी . वेतन भी कम मिलता था. और जो मिलता भी उसे लेने के लिए नाको चने चबाने पड़ते. नगद भुगतान की परम्परा थी इसलिए पूरा वेतन मिलने का तो प्रश्न ही नहीं.
धीरे-धीरे अध्यापक बदला. प्राथमिक शिक्षक संघ अस्तित्व में आया. वेतन में सुधार हुआ. अब शिक्षक को क्षेत्र के जिला पंचायत सदस्य के खेत पर बेगारी नहीं करनी पड़ती थी वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुयी तो अध्यापक को भी लाभ मिलने लगा. विद्यालयों की दशा अच्छी हुई और अध्यापकों के भी दिन फिर गए. लगा की जैसे अब शिक्षक अब बेचारा नहीं रह गया .
ये वो दौर था जब बेसिक शिक्षा परिषद के विद्यार्थी बहुत मेहनती हुआ करते थे. सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में उच्च पदों तक पहुचते थे. इन्ही में से प्रशासनिक अधिकारी बनते थे . परिषदीय विद्यालयों को समाज में सम्मान प्राप्त था. अध्यापक भी ज़िल्लत की जिंदगी से निजात पाकर आदरणीय हो गए थे.
ये सब केवल प्राथमिक शिक्षक संघ के प्रयासों से ही संभव हो सका था.
परन्तु एक बात समझ के बाहर है .शिक्षक विद्यार्थियों के सर्वाधिक निकट रहता है . उनके लिए क्या अच्छा है क्या बुरा है वो ज्यादा अच्छी तरह समझता है.
शिक्षक अपने वेतन में कुछ रुपयों की वृद्धि के लिए सड़कों पर आ जाते है. कई बार तो उन्हें पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ती हैं. परन्तु बात जब निर्धन बच्चों की शिक्षा की हो तो वो सरकार का विरोध क्यूँ नहीं करते ? अगर सरकार विद्यार्थियों के लिए गैर कल्याणकारी योजनाएं विद्यालयों पर थोपती है तो शिक्षकों और शिक्षक संघों का नैतिक दायित्व बनता है की वो उसका विरोध करें. और असहाय बच्चों को अहसास कराएं की कोई तो उनकी चिंता करने वाला है.
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