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साजिश या बेवकूफी ?

मेरी बात
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अच्छी शिक्षा गरीब के बच्चे के नसीब में नहीं . अगर कंहे की प्राथमिक शिक्षा पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है तो यह पानी का अपमान ही होगा . एक तरफ इतने पैसों की बर्बादी और दूसरी तरफ प्राथमिक शिक्षा का निरंतर पतन . मिड -डे -मील योजना का निर्माण करके तुगलकी सपना देखा गया .बच्चो को ये भोजन पुष्ट नहीं बना पाया उल्टे शिक्षको को ज़रूर दुबला बना रहा है .मीनू के अनुसार भोजन बनवाने का सारा तनाव प्रधानाध्यापकों को झेलना पड़ता है . प्रति दिन कुछ समय तो इस मिड -डे -मील में अवश्य व्यर्थ होता है.
मिड -डे -मील तो फिर भी विद्यालयों से सम्बंधित है परन्तु मतदाता -सूची संशोधन , राशन कार्ड सत्यापन, और कुछ विशिष्ट जातियों के सदस्यों की गणना आदि का अनावश्यक भार भी प्राथमिक शिक्षकों के सर पर लाद दिया जाता है. ऊपर से रही सही कसर विकास खंड संसाधन केंद्र और जनपद स्तर पर होने वाले प्रशिक्षण खीज उत्पन्न करते हैं .
बड़े पैमाने पर नये शिक्षकों की भर्ती की जा रही है परन्तु इससे लाभ ही क्या ? जब इनसे शिक्षण कार्य करवाना ही नहीं है . प्राथमिक शिक्षा उच्चतर शिक्षा की रीढ़ है परन्तु सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की ये रीढ़ बड़ी बेरहमी और बेशर्मी के साथ तोड़ी जा रही है. प्रधानाध्यापकों के सर पर जहाँ भवन-निर्माण ,मिड -डे-मील और अन्य आवश्यक-अनावश्यक सूचना-प्रपत्रों का भार है तो सहायक अध्यापकों की स्थिति तो बेहद बदतर है . लगभग हर वर्ष कोई न कोई मतदाता सूची उन्हें संशोधन के लिए थमा दी जाती है और ऊपर से किसी न किसी तरह का सर्वेक्षण भी उनके गले में पड़ा ही रहता है. उनके १५-२० दिन माध्यमिक शिक्षा परिषद् की परीक्षाओं के भेंट चढ़ जाते हैं. हद तो जब हो जाती है जब उनसे बीस दिन का अनिवार्य प्रशिक्षण करने को कहा जाता है और अन्यथा की स्तिथि में वेतन रोकने की धमकी दी जाती है. अगर अध्यापकों से गैर- शैक्षणिक कार्य ही करवाने हैं तो फिर क्या ये प्रशिक्षण ऊपर बैठे कुछ लोगो के लिए धन कमाने का साधन मात्र नहीं है ?
आश्चर्य है कि राज्य और केंद्र सरकार शिक्षा के नाम पर केवल पैसा बहाकर कैसे समझ लेती है कि उसने गरीब बच्चों पर अहसान कर दिया . गरीब का बच्चा है , धरती पर बैठ आकर पढ़ लेगा , अपने घर कि उसी सूखी रोटी को खा कर गुज़ारा कर लेगा जिसे वो बाकी दोनों वक़्त खाता है , बिना बिजली के पंखों के कमरों में बैठ लेगा , बिना पुताई के कमरों में बैठने से भी उसे ऐतराज़ नहीं . बस उसके ‘गुरूजी ‘ को अन्य कार्यों से मुक्ति देकर पढ़ाने तो दो ,वो बेचारा तो पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ने को भी तैयार है .
शिक्षा के लिए बच्चों को सबसे ज्यादा ज़रूरत है तनाव मुक्त शिक्षकों की . सरकार शिक्षकों को बहुत अच्छा वेतन देकर भी उन कार्यों में लगा देती है जो असंख्य बेरोजगार भी कम पैसों में कर सकते हैं
पता नहीं नीति-नियंताओं की गरीब के खिलाफ ये साजिश है या बेवकूफी ?

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